मैं जब भी गीता पढ़ता था ,तो गीता के 18 वें अध्याय के 66 वें श्लोक का अर्थ और उसका आशय नहीं समझ पाता था .क्योंकि पारंपरिक रूप से किये गए अर्थ से इस श्लोक को नहीं समझा जा सकता है ,ऐसा मेरा मंतव्य है .श्लोक इस प्रकार है-
"सर्व धर्मान परित्त्यज्य मामेकं शरणम व्रज ,
अहम् त्वा सर्व पापेभ्यो मोक्ष्यस्यामी मा शुचि. गीता -18 :66
इस श्लोक में "सर्व धर्मान " शब्द प्रयुक्त किया गया है ,जो "धर्म "शब्द का बहुवचन है .अर्थात सभी धर्म .इसका अर्थ अक्सर यही किया जाता है-
"कृष्ण कहते हैं ,हे अर्जुन तुम सभी धर्मों को त्याग कर केवल मेरी शरण में आजाओ ,मैं तुझे सभी पापों से छुड़ा लूंगा ,तुम चिंता न करो "
सब जानते हैं की ,गीता का काल पांच हजार साल से पूर्व का है .उस समय कोई दूसरा धर्म नहीं था .केवल वैदिक धर्म ही था .तो सभी धर्मो को त्याग करने की बात क्यों कही गयी है ?
असल में गीता के समय पाणिनि की व्याकारण नहीं थी .उस समय इन्द्र व्याकरण थी .उसके अनुसार गीता के इस श्लोक में "सव धर्मान "शब्द में
"अ लोपी "समास है .यानि" सर्व धर्मान "की जगह "सर्व अधर्मान "पढ़ना चाहिए .इस तरह अर्थ होगा "हे अर्जुन तुम सभी अधर्मों का त्याग करके ईश्वर की शरण में जाओ .जो अगले श्लोक में साफ होता है .
इसीलिए जब मैंने इस श्लोक का अपनी "गीता सरल "में अनुवाद किया तो इस तरह किया है -
"तू सब पाप छोड़ ,और ले मेरी राह
तू मांग आके दामन में मेरी पनाह
तेरा पाप सब दूर हो जायेगा
न गमगीन हो,मसरूर
हो जायेगा .
-गीता सरल -18 :66
मुझे विश्वास है की मेरे इस अनुवाद से लोगों की शंका का समाधान हो गया होगा .
शर्मा जी,
ReplyDeleteयदि वहा सभी अधर्म (पाप)त्याग से आशय होता तो दूसरी ही पंक्ति में फिर पापों से छुडाने की बात न आती।
मैं इस विषय पर पूर्ण अधिकार तो नहीं रखता पर मेरा मंतव्य है यहाँ 'सर्व धर्मान' से आशय सभी बाहरी स्वभावों (धर्मों)का त्याग कर मेरे पास आर्थात् स्व-आत्म-स्वभाव (धर्म) में आ जाओ। होना चाहिए।
विशेषार्थ ज्ञानी गम्य!!
नहीं शर्मा जी , धर्मों से यहाँ आशय ; पिता धर्म, पुत्र धर्म, पति धर्म, राजधर्म इत्यादि से है !
ReplyDeleteइतनी भाषाओं के ज्ञानी महाशय रहने दें, मसहूर शब्द तक ठीक से नहीं लिख सकते, हर नसल आके मतलब बदलती रहती है, बदलते जाओ
ReplyDeleteकोई धर्म कब था इस कमेंटस का जवाब दो यह दोचार दिन पहले हमने देखा है
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आपको यह जानकर ताज्जुब होगा कि इसी बाल्मीकि रामायण में बौद्धों की निंदा भी भरी हुई है, जिससे पता चलता है कि यह गौतम बुद्ध के बाद की रचना है। देखिए :
यथा हि चोरः स तथा हि बुद्धः तथागतं नास्तिकमत्र विद्धि,
तस्माद् हि सः शक्यतमः प्रजानां स नास्तिके नाभिमुखो बुधः स्यात्
-अयोध्या कांड, 109, 34
अर्थात जैसे चोर दंडनीय होता है, इसी प्रकार (वेदविरोधी) बुद्ध (बौद्ध मतावलंबी) भी दंडनीय है। तथागत (नास्तिक विशेष) और नास्तिक (चार्वाक) को भी इसी कोटि में समझना चाहिए। इसीलिए प्रजा पर अनुग्रह करने के लिए राजा द्वारा जिस नास्तिक को दंड दिलाया जा सके, उसे चोर के समान दंड दिलाया ही जाए, परंतु जो वश के बाहर हो, उस नास्तिक के प्रति विद्वान ब्राह्ममण कभी उन्मुख न हों, उस से वार्तालाप तक न करें। (देखें श्रीमद् वाल्मीकीय रामायण, हिंदी अनुवाद, पृ. 303, गीता प्रेस गोरखपुर, सं 2033)
इस संबंध में आप सुरेन्द्र कुमार शर्मा जी का एक शोधपरक लेख ‘रामायण की ऐतिहासिकता‘ भी अवश्य देखें, जो कि उनकी पुस्तक ‘क्या बालू की भीत पर खड़ा है हिंदू धर्म ?‘ में संकलित है। उपरोक्त अंश उनकी इसी पुस्तक के पृ. सं. 424 से लिया गया है। यह पुस्तक आप ‘विश्वबुक्स दिल्ली‘ से हासिल कर सकते हैं।
यथा हि चोरः स तथा हि बुद्ध |
Deleteस्तथागतं नास्तिकमत्र विध्हि |
तस्माद्धि यः शङ्क्यतमः प्रजानाम् |
न नास्ति केनाभिमुखो बुधः स्यात् २-१०९-३४
अरे यहाँ पर बुद्ध का अर्थ है जिसमे बुद्धि की कमी है,
तुम सच में बुद्धिहीन हो,
कल को कहोगे की हनुमान चालीसा में भी रावण अजान करता था,
रावण जुद्ध अजान कियो तब,
तुम लोगो की मती सच में मारी गयी है,
वहां पर साफ़ साफ़ लिखा है क बुद्धिहीन(बुद्ध) और पूरी बाल्मीकि रामायण में ज्ञान को बुद्धि और बुद्धि हिन् को बुद्ध ही कहा गया है, तो क्या तूम सारे खुद को बुद्धि हिन् भी कहोगे,
कोई कुछ भी लिख देगा तो सब पढने बैठ जाये
ReplyDeleteधर्म विरोधी पुस्तके आज बहुत सी मिल जाती है
जिसमे इस्लाम विरोधी पूरी दुनिया में मिल जाएगी
यहाँ गीता का उर्दू अनुवाद किया जा रहा है
तुमको समझ में आती हो तो पढो वरना फालतू का सड़क छाप किताबी ज्ञान मत झाड़ो
sharmaji aapka bhandafodu blog remove kyo ho gaya
ReplyDeletewww.jagatgururampalji. org
ReplyDeletewww. jagatgururampakji.org
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