Saturday, July 09, 2011

पन्द्रहवांअध्याय :पुरुषोत्तम योग

-पुरुषोत्तम योग -जाते बरतर - 

भगवान ने फरमाया -
सुन अब ऐसे पीपल का अर्जुन बयां-जड़ें जिसकी ऊपर तने डालियाँ . 
शजर लाफना ,जिसके पत्ते हैं वेद-वो है वेद दां ,पाए जो इसका भेद .II 1 II 
गुनों से बढ़ें डालियाँ ला कलाम -हैं अश्याये -महसूस गुंचे तमाम , 
जड़ें इसकी इन्सां की दुनिया तक आयें -जकड़ कर इसे कर्म से बाँध जाएँ .II 2 II 
तसव्वुर में शक्ल इसकी आये कहाँ -न अव्वल ,न आखिर न जड़ का निशां , 
जड़ें इसकी मजबूत हैं चार सू -ब शमशीरे तजरीद से काट तू .II 3 II 
इन्हें काट कर ढूँढ़ फिर वो मुकाम -जहां जाके फिर तू न लौटे मुदाम , 
तू कह मुझको परमेश्वर की अमां -किया जिसने हस्ती का दरिया रवां.II 4 II 
फरेबो तकब्बुर से पाकर निजात -हवस छोड़कर जो रहे महवे जात , 
तअल्लुक न सुख दुख के इज्दाद हों -मुकामे अबद पाके दिलशाद हों .II 5 II 
जले महरो मह की न मशअल वहां -न हो उस जगह आग शोला फिशां , 
मुकामे मुअल्ला मेरा है वही -पहुँच कर जहाँ से न लौटे कोई .II 6 II 
मेरी आत्मा ही का जरदे कदीम -बने रूह अहले जहाँ में मुकीम , 
जो माया में लिपटे हैं अहले हवास -यही रूह खींचे उन्हें अपने पास II 7 II 
जहां ,ईश्वर यानी जीव आत्मा -हो इक तन में दाखिल और इक से जुदा , 
तो साथ अपने लेजाये मन और हवास -सबा जैसे लेजाये फूलों की बास.II 8 II 
जुबां,कान ,रस , आँखऔर नाक से -इन्हीं पांच ,और मन के इदराक से , 
यही रूह लज्जत उडाती रहे -सदा लुत्फे -महसूस पाती रहे .II 9 II 
मुसाफिर जो आया और आ कर चला -जो लुत्फ़ इन गुनों का उठाकर चला , 
नहीं उसको गुमराह पहचानते-हैं अहले बसीरत फकत जानते II 10 II 
जो योगी रियाजत में कोशां रहें -तो वो भी उसे रूह में देख ले , 
वो मूरख है ,कमजोर जिनके शऊर -करें लाख कोशिश ,न पायें वो नूर.II 11 II 
ये सूरज की ताबिश मेरा नूर है -जहाँ जिसके जलवों से मामूर है , 
रहे चाँद रख्शां मेरे नूर से -तो आतिश दरख्शां मेरे नूर से .II 12 II 
जमीं को जो करता हूँ ,खुद को निहां -तो कुव्वत से मेरी मिले कुव्ते जां , 
बनूँ नूरे महताब की आब मैं -तो करता हूँ पौधों को शादाब मैं .II 13 II 
हरारत हूँ मैं ही ,शिकम में निहां -मैं हूँ जान वालों के तन में तवां , 
दरूनो -बरूं दम में आता हूँ मैं -तो चारों गिजायें पचाता हूँ मैं .II 14 II 
हर इंसान के दिल में पिन्हाँ भी मैं -कि हूँ हाफिजा -इल्म ,निसयाँ भी मैं , 
मैं दाना हूँ ,रौशन हैं सब मुझपे वेद-है वेदान्त मुझसे ,मैं वेदों का भेद .II 15 II 
जहाँ में हैं दो तरह की हस्तियाँ -है फानी कोई और कोई जाविदां ,
जहाँ की है मख्लूक फानी तमाम -अजल से जो बाकी है उसको दवाम .II 16 II 
वो परमेश्वर है ,वो परमात्मा -जो है सब पे छाया हुआ लाफना ,
है बाक़ी ओ फानी से बाला ओ हक़ -कि कायम हुए जिस से तीनों तबक .II 17 II 
जो फानी है ,जात उनसे मेरी बुलंद -जो बाकी है बात उनसे मेरी बुलंद ,
है पुरषोत्तम अपना ज़माने में नाम -यही नाम लें वेददां और अवाम .II 18 II 
जो पुरुषोत्तम इस तरह जाने मुझे -दिले हक़- निगर से जो जाने मुझे ,
तो भारत समझ बा खबर है वही -वो तन ,मन से करता है भगती मेरी .II 19 II 
सिखाया तुझे भारत अय पाकबाज-ये इल्मों का इल्म और राजों का राज ,
जो समझे इसे साहबे होश हो -फ़रायज से अपने सुबुकदोश हो .II 20 II 


-पन्द्रहवां अध्याय समाप्त -










1 comment:

  1. गीता का उर्दु में यह काव्यानुवाद उत्तम कक्षा का है। और आपने भावों को बरकरार रखने का आश्चर्य जनक श्रम लिया है।

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